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आखिर कहाँ गुम हो गये हमारे नेता जी (सुभाषचन्द्र बोस)

Deepak Kapoor
Deepak Kapoor
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1यूँ तो हमेशा से मेरा यही सोचना रहा है कि अपने देश के लिये कुछ करके हम उस पर एहसान नही करते पर कुछ न करके कृतघ्न जरूर बनते हैं। परन्तु कभी-कभी देश भी किसी को सैल्यूट करता है। कभी-कभी देश भी अपने किसी लाडले पर नाज करता है। कभी-कभी देश अपने देश होने पर गर्व करता है। सदियो मे कभी किसी ऐसी हस्ती का जन्म होता है कि स्वयं देश भी उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता है। वो कुछ ऐसे लोग होते हैं जो कृतघ्न रहकर दुनिया से नही जाना चाहते, जिनके लिये राष्ट्रवाद ही सबकुछ होता है और उसके आगे उनकी नजरों में स्वयं की जान की भी कोई कीमत नही होती।
23 जनवरी 1897, भारत के इतिहास की एक अमर तारीख है जिस दिन इस देश में एक ऐसी शख्सियत का जन्म हुआ जिसका सदियों से यह देश बेसब्री से इन्तजार कर रहा था। गुलामी का क्रूर दंश झेलते हुये हर अत्याचार पर आह निकल जाती थी और होंठ किसी देशभक्त को मदद के लिये पुकार उठते थे। आखिरकार दर्द भरी आह का उत्तर मिला, करुणा भरे चेहरे में संतोष की कुछ लकींरें नजर आयीं और देश की मिट्टी की उस दिन मुराद पूरी हुयी। महान देशभक्तों की मोतियों से बने भारत माँ के गले के हार में एक मोती और जुड़ गया और जंजीरों में जकड़े उसके शरीर के मुख से सिसकियाँ फूट पड़ीं, खुशी से अश्रु निकल पड़े और होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘आ गया मेरा लाडला, सुभाष चन्द्र बोस!‘‘
परम् सौभाग्यशाली हैं वो लोग जिन्हे उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जर्मनी में भारतीय सैनिकों ने उनको नेताजी कहकर पुकारा तब से आज तक हर हिन्दुस्तानी उनको अतिशय प्रेम और अतिसम्मान के साथ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कहकर सम्बोधित करता है।
कुछ जादुई आकर्षण था उनकी शख्सियत में कि जो भी मिल लेता था प्रेम करनें लगता था। आज भी हम सभी सम्मोहित हैं तभी तो ‘नेताजी‘ शब्द सुनते ही हम सभी के हृदय में राष्ट्रवाद हिलोरें लेने लगता है, सिर स्वतः ही श्रद्धा से झुक जाता है और ‘‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूँगा‘‘ सुनते ही दिल, जोश, जज़्बे और जूनून से भर जाता है और देश पर मर मिटने की अदम्य इच्छा बलवति हो उठती है। उनके विचार, उनके शब्द और यहाँ तक कि उनकी वेशभूषा भी हर भारतीय को आज की जिन्दगी की तमाम् दिक्कतों और परेशानियों के बीच संघर्ष करते रहने और हार न मानते हुये अविचल और अडिग रहने की विशाल प्रेरणा से भर देती हैं।
पर इन सब बातों के बीच कभी-कभी मन उद्वेलित भी हो उठता है, एक अजीब सी बेचैनी और कुछ जानने की छटपटाहट होने लगती है कि आखिर वो कहाँ गुम हो गये। मन इस बात पर यकीन करने से विद्रोह करने लगता है कि नेताजी अब नही हैं और इस बात को दरकिनार करते हुये हम सब कभी किसी गाँव में तो कभी हिमालय पर तो कभी फैजाबाद के गुमनामी बाबा में उन्हे ढूँढनें निकल पड़ते है। परन्तु अब उम्मीद साथ छोड़ रही है। दिल तो कहता है कि वो मिलेगें और शायद अपनी आपबीती हमसे शेयर करेगें परन्तु दिमाग कहता है कि नही अब वो कभी नही आयेगे, उनके जन्म को 117 साल बीत चुके और अब वो इस दुनिया में नही हैं। इस बात का विश्वास करनें का दिल तो नही करता परन्तु दिल और दिमाग के युद्ध मे अक्सर दिल को झुक जाना पड़ता है क्योकि दिमाग नें झुकना नही सीखा।
मन तो करता है कि अपनी ही तरह के नेताजी के कुछ दीवानों के साथ कुछ क्षण बैठें, दुनियादारी से दूर कुछ इत्मीनान के पल, अपने नेताजी की बातें और हृदय मे संजोयी उनकी यादो को ताजा करें, राष्ट्रप्रेम की उनकी कुछ सूक्तियो से अपनी देशभक्तिप्रद भावनाओं को सशक्त करें फिर थोड़ी देर की शान्ती और फिर उस शान्ति को तोड़ते हुये स्वयं के ही होंठ बुदबुदा उठें कि आखिर कहाँ गुम हो गये हमारे नेताजी और फिर दिमाग की बातों को नजरअन्दाज करते हुये, दिल, एकबार फिर से जुट जाये अपने महानायक को समूचे विश्व में खोजनें में।

दीपक कपूर

Corporate Trainer, Personal Development Coach, Counselor and Writer

superawakening.com

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