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10 सितम्बर UNO द्वारा घोषित World Suicide Prevention Day धीरे से बीत गया। कुछ लोगों को पता चला तो बहुतों को तो इसकी भनक तक नही लगी। समाज की आदत है जब तक कोई घाव, नासूर न बन जाये उस पर किसी का ध्यान नही जाता। और अभी तो ये छोटा सा घाव है।
दुनिया में हर 2 सेकेण्ड में कहीं न कहीं कोई आत्महत्या का प्रयास करता है और हर 40 सेकेण्ड में कोई एक आत्महत्या करनें में सफल होता है। यानि की हर दिन 2,192 आत्महत्यायें अर्थात विश्व में प्रतिदिन होने वाले Murders (1197 प्रतिदिन) से कहीं ज्यादा। और इन आत्महत्या करने वालों में हर छठवाँ व्यक्ति भारतीय होता है।
भारत में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से फैल रही है। यहाँ तक कि क्लास 9 और 10 में पढ़नें वाले बच्चे भी अब आत्महत्या कर रहे हैं। ये चिन्ता करने की नही चिन्तन करने की बात है। क्योंकि भले ही हिन्दुस्तान में कानूनी या मेडिकल सलाहकारों की बहुतायत हो, पर करियर काउन्सिलर या पर्सनल काउन्सिलर न के बराबर हैं और न ही पैरेण्ट्स और न ही स्कूल इस पर कोई विशेष ध्यान देता है। और यदि कुछ स्कूल्स इस पर ध्यान दे भी रहे हैं तो वो विशेष तौर पर सिर्फ इस बात पर जोर देते हैं कि कोई Competition कैसे पास किया जाये।
बच्चों का इस्तेमाल रेस के घोड़ों की तरह हो रहा है जिस पर सभी दाँव लगा रहे हैं। पैरेण्ट्स का हर सम्भव प्रयास है कि क्लास में उनका बच्चा फर्स्ट आये अन्यथा उनकी नाक कट जायेगी। स्कूल का नाम तभी रोशन होगा कि कितनों का IIT, PMT में सेलेक्शन हुआ। कोचिंग क्लासिज़ तो ढूँढ-ढूँढ कर ऐसे Students का नाम इकट्ठा कर रही है जिनका कहीं Selection हो गया हो और वो ये कहें कि मैं फलाँ कोचिंग में पढ़ता था। घोड़े तो बेचारे जानवर हैं उन्हें तो आत्महत्या का पता तक नही अतः वो जिन्दगी को वैसे ही झेलते रहते हैं। पर इन्सान के पास Conscious Mind है, Logical Ability है जो उसे किसी भी स्थिति – परिस्थिति का Analysis कर सकनें की क्षमता प्रदान करती है। घोड़े को तो रेस में पता भी नही कि उसके जीतनें हारनें से क्या मतलब है और उसके मालिक पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। पर इंसान को तो सामाजिकता से मतलब है उसे पता है कि उसके हारने का उसके परिवार, समाज और रिश्तेदारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। बच्चों के द्वारा आत्महत्या ये बताती है कि उनकी समाज के प्रति Consciousness तो तेजी से बढ़ रही है परन्तु उनकी सहनशक्ति तेजी से कम हो रही है। वो दूर तक सोच तो सकते हैं कि उनके फेल होने से उनके Parents की कितनी बदनामी होगी, पर आँख मिलाकर लोगों के ताने सुनने की सहनशक्ति उनमें नही है, कितने ही Parents अपने बच्चों को उसके साथ न खेलने की हिदायतें देगें और घर में तो उनकी तुलना परिवार के कितने ही बच्चों के साथ होगी और हर पल हर दिन उनका जीना हराम हो जायेगा और जिन्दगी इस रुप में उन्हे बर्दाश्त नही है, उससे भली उन्हे मौत लगती है।
युवाओं में बढ़ती आत्महत्यायें इस बात की परिचायक हैं कि वो अपने मन की कर नही सकते और समाज के खिलाफ जाने की उनकी हिम्मत नही है।
नेशनल क्राइम रिकार्डस् ब्यूरो के अनुसार हिन्दुस्तान में सन् 2013 में 1,34,799 लोगों नें आत्महत्या की। यानि कि हर 4 मिनट में एक आत्महत्या। चौंकाने वाली बात तो ये है कि इस वार्षिक आँकड़े में 2,891 ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र 15 वर्ष से कम है यानि प्रतिदिन हर तीन घंटे में कोई एक 15 वर्ष से कम उम्र का बच्चा आत्महत्या करता है और हर 11 मिनट में एक ऐसा शख्स अपनी जीवनलीला समाप्त करता है जिसकी उम्र महज् 15 से 29 साल के बीच की होती है। हर 4 घंटे 12 मिनट में बेरोजगारी और करियर की समस्या की वजह से एक आत्महत्या होती है। प्रत्येक 1 घंटे 57 मिनट में कोई युवक या युवती प्रेम सम्बन्धों को समाज द्वारा नकारे जाने के कारण आत्महत्या करता है। और हर 3 घंटे 25 मिनट में कोई एक, स्कूल की परीक्षा में फेल होने की वजह से आत्महत्या करता है।
बच्चों और युवाओं में बढ़ती इस प्रवृत्ति का जिम्मेदार कौन है? आज Parents के लिये सबसे बड़े सम्मान और अपमान का विषय उनके बच्चों की पढ़ाई और फिर एक अच्छी नौकरी हो गयी है। बच्चा बोलना शुरु भी नही करता कि उसकी पढ़ाई शुरु हो जाती है। मदारी का वो खेल याद आता है कि वो बन्दर से पूछता है कि ससुराल जाओगे और बन्दर हाँ में सिर हिलाता है जबकि उसे ससुराल का अर्थ तक नही पता। ठीक वही तरीका आज Parents नें अपना लिया है। और जल्दि और जल्दि के चक्कर में 15-18 महीने के बच्चे को ही Nose कहाँ है, Ear कहाँ है का बन्दर नाच शुरु करवा देते हैं और वो भी तमाशबीन की तरह घर आये हर मेहमान को उनका ये तमाशा देखना ही पड़ता है।
ताज्जुब की बात है कि 46,368 युवा जिनकी उम्र 30 वर्ष से कम थी और 2891 बच्चे जिनकी उम्र 15 वर्ष से भी कम थी, ने अपने माँ – बाप के सामने अपनी जिन्दगी को अलविदा कह दिया जिसका प्रत्यक्ष कारण तो करियर, बेरोजगारी, पारिवारिक समस्या या परीक्षा में फेल होना है परन्तु अप्रत्क्ष रुप से ये स्कूल और Parents द्वारा मिलकर की गयी हत्या है। परन्तु अफसोस तो ये है कि न तो स्कूल अपनी गल्ती मानने को तैयार है और न ही कोई Parents स्वयं के द्वारा बनाये गये पारिवारिक परिवेश को कहीं से कमतर मानने को राजी हैं। जबकि ऐसी प्रत्येक आत्महत्या के लिये स्कूल और Parents दोनों ही ऐसी गैर इरादतन हत्या के दोषी हैं जिसके लिए कानूनन उन्हे एक भी दिन की सजा नही होती।
इस सम्बन्ध में ठोस कदम उठानें की जरुरत है। Parents तथा स्कूल्स को इसका Analysis करना पड़ेगा। इस बात को सभी को समझना पड़ेगा कि बच्चे कोई रेस के घोड़े नही हैं कि उनपर दाँव लगाये जायें। प्रतियोगिता करना अच्छा है पर स्वस्थ माहौल बनाना पड़ेगा। किसी भी प्रतियोगिता का उद्देश्य लक्ष्य को बेंधना मात्र हो, न कि पड़ोसी और रिश्तेदारों के बच्चों से एक अंक ज्यादा पाना। जिन्दगी जीने के लिये जहाँ बच्चों को अपने पैरेण्ट्स आदि के अनुभवों से कुछ सीखनें की जरुरत है तो पैरेण्ट्स को भी आज के समय के सफलता के पैमाने को बच्चों से जानने की जरुरत है। हर स्थिति और परिस्थिति में एक ही फार्मूला नही चलता। जो स्थिति आज से 30 साल पहले थी वही आज नही है। आज स्कूल्स के सिलेबस काफी ज्यादा है आज के युग में एक अच्छा करियर बनाना पहले के मुकाबले थोड़ा ज्यादा मुश्किल है। जरुरत है इस बात की कि सोच-समझकर एक उत्कृष्ट रास्ता निकाला जाये अन्यथा हम इसी प्रकार अपनें बच्चों की जिन्दगी से खिलवाड़ करते रहेगें और बच्चे अपनी जिन्दगी की इतिश्री करते रहेगें।
दीपक कपूर
Corporate Trainer, Personal Development Coach, Counselor and Writer
Website : superawakening.com
Profile of Deepak Kapoor : superawakening.com/deepakkapoor.pdf
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